छोटे साहिबजादे और माता गुजरी की शहीदी
आनंदपुर छोड़ते समय सरसा नदी पार करते हुए गुरु गोबिंद सिंह जी का पूरा परिवार बिछुड़ गया। माता गुजरी जी और दो छोटे पोते साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह के साथ गुरु गोबिंद सिंह जी एवं उनके दो बड़े भाइयों से अलग-अलग हो गए। सरसा नदी पार करते ही गुरु गोबिंद सिंह जी पर दुश्मनों की सेना ने हमला बोल दिया।
चमकौर के इस भयानक युद्ध में गुरुजी के दो बड़े साहिबजादों ने शहादतें प्राप्त कीं। साहिबजादा अजीत सिंह को 17 वर्ष एवं साहिबजादा जुझार सिंह को 15 वर्ष की आयु में गुरुजी ने अपने हाथों से शस्त्र सजाकर धर्मयुद्ध भूमि में भेजा था।
सरसा नदी पर बिछुड़े माता गुजरीजी एवं छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह जी 7 वर्ष एवं साहिबजादा फतेह सिंह जी 5 वर्ष की आयु में गिरफ्तार कर लिए गए।
उन्हें सरहंद के नवाब वजीर खाँ के सामने पेश कर माताजी के साथ ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया गया और फिर कई दिन तक नवाब और काजी उन्हें दरबार में बुलाकर धर्म परिवर्तन के लिए कई प्रकार के लालच एवं धमकियाँ देते रहे।
दोनों साहिबजादे गरज कर जवाब देते, ‘ हम अकाल पुर्ख (परमात्मा) और अपने गुरु पिताजी के आगे ही सिर झुकाते हैं, किसी ओर को सलाम नहीं करते। हमारी लड़ाई अन्याय, अधर्म एवं जुल्म के खिलाफ है। हम तुम्हारे इस जुल्म के खिलाफ प्राण दे देंगे लेकिन झुकेंगे नहीं।’ अत: वजीर खाँ ने उन्हें जिंदा दीवारों में चिनवा दिया।
साहिबजादों की शहीदी के पश्चात बड़े धैर्य के साथ ईश्वर का शुक्रिया अदा करते हुए माता गुजरीजी ने अरदास की एवं अपने प्राण त्याग दिए। तारीख 26 दिसंबर, पौष के माह में संवत् 1761 को गुरुजी के प्रेमी सिखों द्वारा माता गुजरीजी तथा दोनों छोटे साहिबजादों का सत्कारसहित अंतिम संस्कार कर दिया गया।
दिसंबर 1704 ई. को मुगल हकुमत द्वारा गुरू गोबिन्द सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह जी और बाबा फतिह सिंह जी को अपना धर्म ना छोड़ने के कारण,दीवारों में जिंदा चुनवा कर शहीद कर देने के बाद तुरंत एक शाही फुरमान जारी कर दिया गया कि सरकारी जमीन पर साहिबजादों और माता गुजरी जी का संस्कार नहीं किया जा सकता।यह भी हुक्म दिया गया कि उनका संस्कार केवल चैधरी अटटा से जमीन का प्लाट खरीद कर ही किया जा सकता है।इस हुक्म में यह भी प्रतिबन्ध था कि जितनी जमीन की जरूरत है,उस पर सोने के सिक्कों (अर्शफियां) को सीधा खड़ा करके ही खरीदा जा सकता है।
टोडर मल
मनवीय समानता,आपसी भाईचारे तथा सर्वत्र का भला मांगने वाले सिक्ख र्धम की संसार में निवेकली तथा न्यारी पहचान है।इस पहचान को स्थापित करने में यहाँ श्री गुरू नानक देव जी ने अमूल्य कोशिश की है,वहीं दूसरे गुरू साहिबान की और से भी सिक्खी के प्रचार तथा प्रसार के लिए विशेष प्रयास किए गए है।“जब आब की औध निदान बनती” रही तब उस समय जहाँ गुरू साहिबान की ओर से (परिवारों समेत) बड़ी तथा उच्च कुर्बानीयां की गई है वही उनके प्यारे सिक्खों की ओर से भी अपने तन,मन तथा धन के साथ वर्णनयोग्य तथा बहुमूल्य सेवाएं की गई है।
इस प्रकार की सेवाओं में ही शामिल है श्री गुरू गोबिंद सिंह के एक सच्चे तथा सूचे (पवित्र) सिक्ख दीवान टोडर मल द्वारा साका सरहिंद के समय गुरू परिवार (माता गुजरी तथा छोटे साहिबज़ादों) के प्रति की गई सेवा। दीवान टोडर मल सरहिंद के एक धनवान व्यापारी थे,जो श्री गुरू गोबिंद सिंघ जी के सच्चे और श्रद्वावान सिक्ख थे।उनके पास बेशुमार दौलत और जमीन थी।जिस हवेली में वह रहते थे उसको ”जहाज महल“ के नाम से जाना जाता है।
दिसंबर 1704 ई. को मुगल हकुमत द्वारा गुरू गोबिन्द सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह जी और बाबा फतिह सिंह जी को अपना धर्म ना छोड़ने के कारण,दीवारों में जिंदा चुनवा कर शहीद कर देने के बाद तुरंत एक शाही फुरमान जारी कर दिया गया कि सरकारी जमीन पर साहिबजादों और माता गुजरी जी का संस्कार नहीं किया जा सकता।यह भी हुक्म दिया गया कि उनका संस्कार केवल चैधरी अटटा से जमीन का प्लाट खरीद कर ही किया जा सकता है।इस हुक्म में यह भी प्रतिबन्ध था कि जितनी जमीन की जरूरत है,उस पर सोने के सिक्कों (अर्शफियां) को सीधा खड़ा करके ही खरीदा जा सकता है।
- उस समय किसी में इतना साहस नहीं था कि वह साहिबज़ादों का इतना मंहगा संस्कार कर सके।इस संकटकालीन समय गुरू साहिब के एक श्रद्धावान/धनवान सिक्ख दीवान टोडर मल अपनी ज़िन्दगी को खतरे में डाल कर आगे आए और पूरे सम्मान के साथ संस्कार करने के लिए जितनी जमीन चाहिए थी उस पर सोने के सिक्के खड़े कर दिये।एक अनुमान के अनुसार उस जमीन को खरीदने के लिए लगभग 78000 सोने के सिक्कों की आवश्कता थी,जिसकी आज के सोने के सिक्कों की तुलना में एक बहुत बड़ी कीमत बनती है।जमीन की कीमत चुका के सेठ टोडर मल ने तीनों (बाबा जोरावर सिंह,बाबा फतिह सिंह और दादी माता गुजरी जी) शहीदों के संस्कार के लिए जरूरी प्रबंध किए और पूर्ण अदब के साथ संस्कार किया। अपनी धनाढ़यता और खुशहाली को गुरू के परिवार तथा प्यार के लिए कुर्बान करके दीवान टोडर मल सिख इतिहास में सदा के लिए अमर हो गए।उनकी इस नेक और अदभुत सेवा की याद को ताजा रखने के लिए एक विशाल संगत-हाल का निर्माण किया गया है जो उनके प्रति सिख भाईचारे के आदर का प्रतीक है।