भगवान हयग्रीव श्रीहरि के २४ अवतारों में से एक हैं। हालाँकि हिन्दू धर्म में उनके अतिरिक्त हयग्रीव नाम के एक दानव, एक दैत्य और एक राक्षस भी हुए हैं, इसीलिए लोगों को ये शंका होती है कि वास्तव में हयग्रीव आखिरकार कितने थे? अलग-अलग पुराणों में भी हयग्रीव के विषय में अलग-अलग कथा दी गयी है जो इसे और भी जटिल बनाती है। तो चलिए इसे समझते हैं।
भागवत पुराण के अनुसार हयग्रीव का सबसे पहला वर्णन मत्स्य अवतार के समय मिलता है। कथा के अनुसार हयग्रीव नाम का एक असुर था। कुछ लोग उसे दैत्य भी कहते हैं, हालाँकि इसमें शंका है क्यूंकि दैत्य जाति की उत्पत्ति कालांतर में महर्षि कश्यप और दिति से हुई थी। हयग्रीव ने निद्रामग्न ब्रह्माजी से वेदों को चुरा लिया और सागर की गहराइयों में चला गया। वेदों के लोप हो जाने से समस्त संसार में अज्ञानता व्याप्त हो गयी।
तब ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु से वेदों के कल्याण का अनुरोध किया। तब तक प्रलय काल भी आ चुका था। ये देख कर भगवान विष्णु ने अपना पहला मत्स्य अवतार लिया और स्वयंभू मनु एवं सप्तर्षियों की रक्षा के साथ साथ उन्होंने जल में छिपे हयग्रीव का भी वध कर दिया और वेदों को पुनः प्राप्त किया। तत्पश्चात उन्होंने वेदों को परमपिता ब्रह्मा को लौटा दिया।
इसी से मिलता जुलता विवरण आदि असुरों मधु और कैटभ के समय भी मिलता है। एक कथा के अनुसार श्रीहरि के कान के मैल से मधु और कैटभ नामक असुर जन्में। जब ब्रह्माजी वेदों को प्रकट कर रहे थे तो उस स्मृति को उन दोनों असुरों ने सुन लिया और उसे लेकर पाताल में छिप गए। तब भगवान विष्णु ने घोड़े के सर और मनुष्य के धड़ वाला एक अद्भुत अवतार लिया जो हयग्रीव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हयग्रीव का अर्थ होता है अश्व (घोड़े) की ग्रीवा (गर्दन) वाला।
हयग्रीव रुपी श्रीहरि विष्णु ने मधु और कैटभ से युद्ध किया और उन दोनों का वध कर दिया। उन दोनों का वध करने के लिए भगवान शिव ने उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान किया और नारायण ने उसी सुदर्शन चक्र से दोनों असुरों के ६-६ टुकड़े कर दिए। दो सर, दो धड़, चार हाथ और चार पैर। उनके वही टुकड़े पृथ्वी पर गिरे जिससे पृथ्वी की १२ परतों का निर्माण हुआ। उनके टुकड़े (मेद) गिरने से पृथ्वी मेदिनी के नाम से प्रसिद्ध हुई। बाद में हयग्रीव रुपी श्रीहरि ने वेदों को ब्रह्मा जी को लौटा दिया।
हयग्रीव के विषय में सबसे प्रसिद्ध कथा हमें महाभारत में मिलती है। इसके अनुसार महर्षि कश्यप और दक्ष पुत्री से दानवों की उत्पत्ति हुई। उनमें से ही एक अश्व के सर वाला दानव था जिसका नाम था हयग्रीव। उसने अमरता प्राप्त करने के लिए माता पार्वती की तपस्या की। जब माता प्रसन्न हुई तो उसने अमरता का वरदान माँगा जिसे देने से माता ने मना कर दिया। तब उसने वरदान माँगा कि उसकी मृत्यु केवल हयग्रीव के ही हाथों हो। माता ने तथास्तु कह दिया।
अब उसने सोचा कि मेरी मृत्यु केवल मेरे ही हाथों से हो सकती है इसी कारण मैं अमर हूँ। ये सोच कर उसने पूरी सृष्टि में त्राहि-त्राहि मचा दी। तब ब्रह्माजी ने श्रीहरि से इसका कोई उपाय करने को कहा। इस पर श्रीहरि लीला रचते हुए एक दिन माता लक्ष्मी की सुंदरता को देख कर मुस्कुराने लगे। माता उनकी लीला समझ नहीं पायी और सोचा कि स्वामी उनका परिहास कर रहे हैं। तब उन्होंने श्रीहरि को श्राप दे दिया कि उनका मस्तक धड़ से अलग हो जाये।
श्राप के बाद माता लक्ष्मी अपनी गलती पर विलाप करने लगीं। तब श्रीहरि ने उन्हें समझाया कि सृष्टि के कल्याण के लिए उनका ये श्राप वरदान बन जायेगा। उधर हयग्रीव दानव ने अहंकार में आ कर सीधे श्रीहरि विष्णु को ललकारा। वे तो वही चाहते थे। वे तत्काल उससे युद्ध करने पहुंचे। दोनों में घोर युद्ध आरम्भ हुआ किन्तु माता पार्वती के वरदान के कारण श्रीहरि उसका वध नहीं कर रहे थे। इस प्रकार युद्ध करते करते ७ दिन बीत गए।
आठवें दिन दोनों युद्ध विराम लेकर विश्राम करने लगे। हयग्रीव भूमि पर और श्रीहरि अपने धनुष श्राङ्ग की प्रत्यंचा पर विश्राम करने लगे। उधर देवताओं को लगा कि नारायण योगनिद्रा में चले गए हैं। यदि ऐसा हुआ तो फिर हयग्रीव का वध कौन करेगा। ऐसा सोच कर देवताओं ने सुझाव दिया कि श्रीहरि के धनुष श्राङ्ग की प्रत्यंचा खींची जाये जिसके स्वर से नारायण की निद्रा टूट जाएगी। किन्तु किसने इतना समर्थ था कि नारायण के धनुष की प्रत्यंचा खींचे? तब देवताओं ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की।
देवताओं की प्रार्थना सुनकर ब्रह्मा जी ने अपने तेज से एक कीड़े को जन्म दिया और उसे श्राङ्ग की प्रत्यंचा काटने को कहा। विधाता के तेज से उत्पन्न उस कीड़े ने श्राङ्ग की प्रत्यंचा काट दी जिससे एक कर्णभेदी स्वर उत्पन्न हुआ और उसी प्रत्यंचा से श्रीहरि की गर्दन कर गयी। इस प्रकार माता लक्ष्मी का श्राप फलीभूत हुआ। ये देख कर देवता शोक में डूब गए कि अब हयग्रीव का वध कौन करेगा।
तब वहाँ माता पार्वती प्रकट हुई और सबको दानव हयग्रीव को दिए गए अपने वरदान के बारे में बताया। उन्होंने ब्रह्मा जी से प्राथना की कि नारायण के धड़ में अश्व का मुख लगा कर उन्हें हयग्रीव रूप दिया जाये जिससे वे हयग्रीव का वध कर सकें। तब ब्रह्माजी ने तत्काल अश्विनीकुमारों को बुलाया जो स्वयं हयग्रीव, अर्थात अश्व के मुख वाले थे।
देवताओं के वैद्यों, अश्विनीकुमारों ने परमपिता के आदेश पर एक नील अश्व का मुख नारायण के धड़ पर लगा दिया और तब नारायण ने हयग्रीव अवतार लिया। अब माता पार्वती के वरदान के अनुसार श्रीहरि उसका वध कर सकते थे। तब उन्होंने तत्काल ही हयग्रीव दानव का वध कर दिया और सृष्टि को उसके अत्याचार से मुक्त करवाया।
इन सभी कथाओं के अतिरिक्त भी रामायण में हयग्रीव नामक एक राक्षस का वर्णन है जो रावण की सेना का एक सेनापति था। उसने रावण की ओर से उस युद्ध में भाग लिया और वीरगति को प्राप्त हुआ। हालाँकि उसकी मृत्यु किसके हाथों हुई, इसका कोई स्पष्ट वर्णन नहीं मिलता।